कमरुनाग – हिमाचल की हसीन वादियों के गर्त में छुपा एक अनमोल रत्न. शानदार घने जंगल के बीच से गुजरते हुए, सहसा ही एक छोटे से खुले स्थान में इस झील के दर्शन करना अपने आप में एक अलौकिक अनुभव है. तो मैं और मेरा दोस्त बाली निकल पड़े इस छुपे हुए खजाने की तलाश में. मंडी बस स्टेशन पर आते ही, थोड़ी देर में रोहांडा के लिए बस मिल गयी. रोहांडा, सुंदर नगर – करसोग मार्ग पर बसा एक छोटा सा गाँव है जहाँ से कमरूनाग तक 6 किलोमीटर की पैदल यात्रा से पहुँचा जा सकता है.
सुंदर नगर से रोहांडा तक का मार्ग कुछ अदभुत प्राकृतिक नज़ारे पेश करता है जो मैंने अपनी पहाड़ी यात्राओं में पहले कभी नहीं देखे थे. ऐसे में मुझे कई बार बस से उतरकर पैदल सफ़र करने का मन करता था, पर समय एक बड़ी बाधा थी. वैसे कुदरत के नज़ारों का भरपूर आनंद लेने का जो मज़ा पैदल सफ़र करने में है वो किसी और चीज़ में नहीं, और ये मैं मजाक में नहीं बल्कि अपनी कुछ पिछली छोटी – छोटी पैदल यात्राओं के अनुभव से कह सकता हूँ.
पैदल चलते वक्त हम न सिर्फ कुदरत के विराट स्वरुप का आनंद लेते हैं, बल्कि यह हमारा परिचय प्रकृति के उस अनमोल रूप से भी करवाता है जिसका स्वाद हम अन्यथा नहीं चख पाते, जैसे की राह में दिखने वाले पशु / पक्षी / कीट और उनके मधुर स्वर, मीठे पानी के कुदरती जल स्रोत / नदियाँ / झीलें / झरने, अचंभित कर देने वाले पेड़ / पौधे और उन पर लगे मनमोहक फूल और मीठे फल जो आपको एक पल रुकने पर मजबूर कर देते हैं, भोले – भाले पहाड़ी लोग और उनका रहन – सहन, छोटे – छोटे पहाड़ी रास्ते जिन पर चलकर शरीर में एक नई उर्जा का संचार होता है और अंत में इन सभी यादों को सहेजे रखने के लिए इन्हें कैमरे में कैद करने की लालसा. ये सब न सिर्फ कुदरत की इस अदभुत रचना को नजदीक से जानने की प्रक्रिया होती है, बल्कि प्रकृति और अपने बीच के रिश्ते को समझने और अनुभव करने का भी बहुत अच्छा अवसर होता है.
रोहांडा पहुँचकर सबसे पहला काम था, खाली टंकर (पेट) में पेट्रोल (खाना) भरना ताकि लगभग 12 से 13 किलोमीटर का सफ़र बिना किसी अवरोध के पूरा किया जा सके. हालाँकि बाली के मन में शंका थी की कँही पेट्रोल (खाना) ख़त्म न हो जाये, इसलिए थोडा साथ रखकर भी ले चले. यहाँ से शुरू होता है पैदल यात्रा का असली रोमांच. शुरुआती सफ़र थोडा थकाने वाला जरुर था, जिसकी पहली वजह थी रोहांडा में खाया गया भरपेट भोजन और दूसरा कारण थी अप्रत्याशित खड़ी चढाई. खैर जैसे – जैसे आगे बढते गए, प्रकृति का घूँघट उठता गया और कुदरत के कुछ शानदार नज़ारों नें थकान को छूमंतर कर दिया. इस पर बीच में कहीं – कहीं पर हल्की – फुल्की बिखरी बर्फ के निशान इस बात की पुष्टि करते प्रतीत हो रहे थे कि हो ना हो झील पर थोड़ी बहुत बर्फ तो देखने को जरुर मिलेगी, जिससे हमारा उत्साह और जोश दोगुना हो गया. बीच – बीच में दूर कहीं चोटियों पर पड़ी ताज़ा बर्फ और वो हसीं वादियाँ हमारी कल्पनाओं को पँख दे रही थी, ऐसे में किस तरह हमने आधे से ज्यादा दूरी मजे – मजे में तय कर ली थी, पता ही नहीं चला. ऐसे में एक बात अचंभित करने वाली यह थी कि अभी तक के पूरे रास्ते में हमें किसी आदमजात के दर्शन नहीं हुए थे, जबकि देव कमरुनाग को पूरे मंडी जिले का एक प्रमुख आराध्य देव माना जाता है.
ऐसी चर्चा करते हुए हम चले ही जा रहे थे के अचानक, शांत घने जंगले के बीचों – बीच किसी जानवर के दौड़ने कि आवाज़ ने पलभर के लिए रोंगटे खड़े कर दिए, पर तीखी ढलान होने कि वजह से उसे देख पाना थोडा मुश्किल था. हो ना हो ये कोई जानवर ही था क्योंकि ऐसे तीखी ढलान पर किसी इंसान के लिए इस गति से नीचे उतरना थोडा मुश्किल सा लगता था. कुछ ही पलों में अपने सामने एक भयंकर रौबीले पहाड़ी कुत्ते को देखकर हमारे कदम अचानक ठहर गए और एक पल के लिए साँसे भी थम गयी. ऐसे में हमारी कल्पना हमें पलभर में हसीं वादियों से निकालकर जंगली जानवरों के बीच ले गयी. एक तो सामने खड़े भयंकर कुत्ते का भय, ऊपर से धीमे – धीमे आती हुयी क़दमों की आवाज़, ऐसा लगा मानो उस कुत्ते का पीछा कोई अन्य भयंकर जानवर कर रहा हो. पर हमारी जान में जान आयी जब हमने कुछ छोटे बच्चों को पीछे से दौड़ते हुए आते देखा. पूछने पर पता चला की पास ही के गाँव के बच्चे थे और घूमते – घामते जंगल में चले आये थे.
आगे चलने पर कुछ और लोगों से मुलाकात हुई जिन्होंने बताया कि मंदिर अब बस पास ही था. चेहरे पर ख़ुशी व रोमांच लेकर थोडा ही आगे बढे थे कि रास्ते पर बिछी बर्फ की एक सफ़ेद चादर को देखकर मन जैसे सातवें आसमान पर पहुँच गया. इस तरह यकायक बर्फ देखकर कदम स्वतः ही रुक गए, मन किया कि कुछ पल यहाँ पर बिताये जाएँ, फिर क्या था शुरू हो गया फोटो सैशन. थोड़ी देर में समय का आभास हुआ, तो आगे बढ़ना दोबारा शुरू कर दिया. बीच – बीच मैं मिलने वाली सफ़ेद बर्फीली चादरें हमारी उत्सुकता और रोमांच को बढ़ाये जा रही थी. अचानक लगा कि हम किसी खुले स्थान पर पहुँचने वाले थे और देखते ही देखते हमारी कल्पना साकार हो गयी. देवदार के खुबसूरत पेड़ों के झुरमुट के बीच, खुले गगन के तले अदभुत बर्फ से जमी हुयी झील और उसके किनारे देव कमरुनाग का मंदिर सब मिलकर मानो हम पर सम्मोहन कर रहे हो. कुछ पल तो मैं और बाली बिना कुछ बोले कुदरत के इस सुन्दरता को निहारते रहे. देव कमरुनाग के दर्शन और झील की परिक्रमा करने के बाद, शुरू हो गयी बर्फ में मस्ती. हालाँकि बर्फ बहुत ज्यादा नहीं थी, पर हमारी अपेक्षा से कहीं अधिक थी.
देव कमरुनाग को जो की पूरे मंडी जिले के आराध्य देव हैं, वर्षा का देव माना जाता है. यह मंदिर व झील समुद्र तल से करीब 9100 फीट की ऊंचाई पर कमरू घाटी में स्तिथ है. एक मान्यता के अनुसार, देव कमरू को सोने-चाँदी व करेंसी चढाने का रिवाज है जो की आमतौर पर झील में चढ़ाया जाता है. इस कारण ऐसा माना जाता है कि इस झील के गर्त में करोड़ों की करेंसी व सोना – चाँदी छुपा पड़ा है, स्थानीय लोगों को झील में सोने – चाँदी के आभूषण और करेंसी चढाते हुए यहाँ होने वाले वार्षिक मेले (14 – 15 जून) के दौरान देखा जा सकता है. एक अन्य प्रचलित मान्यता के अनुसार, देव कमरू को देव बर्बरीक (घटोत्कच का पुत्र और भीम का पोता) भी माना जाता है जो एक महान व अविजय योद्धा थे और जिन्होंने महाभारत के युद्ध में एक निर्णायक भूमिका अदा की थी. अपनी माता को दिए वचन के अनुसार, उन्हें महाभारत के युद्ध में कमजोर पक्ष का साथ देना था. इस पर स्वभावानुसार, श्री कृष्ण ने ब्रह्मण के वेश में लीला खेली और बर्बरीक को चुनौती दी कि वो एक वृक्ष के सभी पत्तों को एक साथ एक बाण से भेधकर दिखाए. बर्बरीक के अभेद्य बाण कि परीक्षा लेने के लिए उन्होंने एक पत्ता अपने पैर के नीचे भी छुपा लिया, लेकिन उनके बाण ने उसे भी ढूंढ़ निकाला. यह सोचकर कि यह योद्धा युद्ध में हर हारते हुए पक्ष की ओर से लड़ते हुए अंततः सभी को समाप्त कर देगा, भगवान श्री कृष्ण ने बर्बरीक को अपने विराट स्वरुप के दर्शन देकर, उनसे गुरुदक्षिणा के रूप में उनका शीश माँग लिया. दानी बर्बरीक थोडा अचंभित होकर, अपना शीश देने को राजी हो गए. पर उन्होंने महाभारत का सम्पूर्ण युद्ध देखने की इच्छा जताई. इस पर भगवान श्री कृष्ण ने उनका शीश कमरू चोटी पर रख दिया जहाँ से उन्होंने महाभारत का पूरा युद्ध देखा. उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्री कृष्ण ने उन्हें वरदान दिया कि कलयुग में तुम्हे मेरे नाम (श्याम) से जाना जायेगा और इन्हें ही आज राजस्थान के खाटू नामक स्थान पर खाटू श्याम जी के नाम से जाना जाता है.
इस सम्मोहन से थोडा बाहर निकले तो अचानक घडी पर नज़र पड़ी, अरे ये क्या! 4 बज गए, 2 घंटे कैसे गुजरे पता ही नहीं चला, लगता था मानो अभी थोड़ी देर पहले ही तो आये थे. खैर आज ही घर वापसी का इरादा था, इसलिए आखिरी बार इस करिश्माई दुनिया को जी भरकर देखकर और फिर आने का वादा करके, नीचे उतरना शुरू किया. उतरते वक्त, कुदरत का एक और रूप देखने को मिला. डूबते सूरज की किरणों का प्रकाश ऐसे फ़ैल रहा था की मानो जैसे कोई पूरी घाटी को सोने से पहले लाल चादर ओढ़ा रहा हो. हालाँकि समय कम था, लेकिन सूर्यास्त के इस अद्भुत नज़ारे ने हमें रुकने पर मजबूर कर ही दिया. हमने ऐसी जगह रूककर इस प्राकृतिक घटना का आनंद लिया जहाँ से सड़क की दुरी कुछ 1 या 2 किलोमीटर रही होगी. सड़क तक आते – आते अँधेरा पसर चुका था. चढाई करते समय हरबार की तरह इस बार भी आखिरी बस का समय पूछना भूल गए थे. खैर देर आये दुरुस्त आये. दिसम्बर माह की ठण्ड में अलाव जलाकर बैठे हुए कुछ लोगों से पूछा तो पता चला कि आखिरी बस तो कबकी जा चुकी थी. हमेशा की तरह यात्रा का अंत भी रोमांचक मोड़ ले रहा था.
मैं किसी भी हाल में रोहांडा नहीं रुक सकता था. हालांकि बाली को इसमें कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि वह मंडी में ही काम करता है और सुबह आसानी से बस पकड़कर मंडी पहुँच सकता था. हमारे पास किसी निजी वाहन का इंतज़ार करने का अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. लगभग आधा घंटा हो गया था उन ठंडी हवाओं के बीच खुली सड़क में ठिठुरते हुए, लेकिन सिवाय एक छोटी बैलगाड़ी के कोई वाहन सुंदर नगर की तरफ नहीं जाता पाया गया. जबकि सड़क के उसपार करसोग जाने वाले रास्ते पर से इस बीच कई वाहन गुजर गए थे. इसी बीच एक छोटा सा कोयलों से भरा टेम्पो पास वाली दूकान पर रुका. पूछने पर पता चला कि वो तो सुंदर नगर ही जा रहा था, सुनते ही मानो खुशी की एक लहर सी दौड़ गई.
चालक से बात की तो उसने ये कहकर मना कर दिया कि जगह नहीं है. हालाँकि उसी टेम्पो में बैठे दूसरे सज्जन से प्रार्थना की तो वो शुरुआती पूछताछ के बाद राजी हो गए. लेकिन उन्होंने बताया कि टेम्पो में इतनी जगह नहीं है कि 4 लोग सीट में बैठ सकें, इसलिए बाली और मैं बिना समय गवाएं टेम्पो के पीछे कोयले से भरी बोरियों के ऊपर जा बैठे. पहाड़ों में खुले आसमान के नीचे, अनगिनत तारों को टिमटिमाते हुए देखना एक अद्भुत अनुभव होता है, जो शहरों कि चमचमाती रौशनी और भारी प्रदुषण के बीच कहीं खो जाता है. तारों को घूरते – घूरते, थकान के कारण न जाने कब आँख लग गयी, पता ही नहीं चला. थोड़ी देर बाद झटका लगने से नीद खुली तो बाली को भी एक कोने में ठिठुरता पाया. बैग में रखी चादर निकालकर, ओढ़कर फिर सो गए.
टेम्पो बीच में कहीं रुका तो लगा मानो पहुँच गए, पर वो तो रास्ते में एक दुकानदार को कोयले की कुछ बोरियां देने रुका था. हालांकि सुंदर नगर अब यहाँ से ज्यादा दूर नहीं था. लगभग 15 मिनट में सुंदर नगर पहुँचकर, टेम्पो वालों को धन्यवाद देकर, बस स्टेशन की तरफ बड़े ही थे कि चाँदनी में नहाई सुंदर नगर कि मनमोहक झील को देखकर कदम यकायक ही थम गए. लेकिन यहाँ ज्यादा समय न बिताते हुए, बस स्टेशन की तरफ चल पड़े. संयोगवश दिल्ली जाने वाली बस रवानगी के लिए तैयार ही खड़ी थी कि लपककर पकड़ लिया और सीट भी मिल गयी. हालांकि इस जल्दबाजी में मेरा कुछ सामान बाली के पास और उसका कुछ सामान मेरे पास रह गया और बाली को फ़ोन पर ही अलविदा कहना पड़ा. वाकई शुरू से अंत तक रोमांच ही रोमांच था इस यात्रा में, ये क्रिसमस मुझे जीवनभर याद रहेगा !!!
अच्छा है प्रभु आप ने हम पर कृपा की और हिंदी में लिखने लग गए .........पता नहीं क्यों अंग्रेजी समझ में आते हुए भी बात दिल तक नहीं पहुँच पाती है। ये कृपा आगे भी बनी रहे ऐसी उम्मीद है।
ReplyDeleteCamping Near Delhi Comment Thanks for Sharing Good Informatioon .
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